Thursday 14 June, 2007

एक कहानी

आइये आज मैं आपका परिचय एक शख्स से करवाता हूँ जिनको हम "बोस दा" के नाम से जानते है । बोस दा मूलतः बंगाली है इसलिये उनका रुझान साहित्य और कला कि तरफ काफी है । यधपि उनको देख कर इस बात का अंदाजा लगाना काफी मुश्किल है क्यूंकि वो हमेशा अपने काम को लेकर ऑफिस मे व्यस्त दिखते है । परंतु अगर उनके काम को देखा जाये तो उसमे आपको इत्मिनान और कला दोनो दिखेंगे । बहुत ही शांत और इत्मिनान स्वभाव के बोस दा और मैं एक दिन अपने इस ब्लोग साईट के बारे मे बात कर रहे थे। बात चित के क्रम मे हम प्यार को लेकर चर्चा करने लगे। उस दिन उन्होने मुझे एक कहानी सुनाई , जिसे मैं आप लोगों को भी सुनाता हूँ ।



हम हमेशा कि तरह उस बस स्टोप के बगल वाले सिगरेट कि दुकान पर खडे थे। कुछ दोस्त पेड के छाँव मे सिगरेट पी रहे थे । अक्सर हम गरमी कि दोपहरी मे वक़्त काटने के लिए अपने दोस्तो के साथ वहाँ इकठ्ठा होते थे । अमित और प्रणव सामने के तालाब मे पत्थर फेंक कर पानी मे उछाल गिन रहे थे । हम बंगाल के छोटे से कस्बे मे रहते थे जहाँ हर तरफ एक खामोशी पसरी होती थी ।

जिस रास्ते के बगल मे हम खडे थे , यधपि था तो एक स्टेट हाईवे पर गाडियां गिनी चुनी ही आती थीं । मेरा ध्यान बस स्टोप कि तरफ था, मैंने देखा .... स्टेट हाईवे कि एक जर्जर बस स्टोप पर आकर रुकी । बस से एक ६५- ७० साल का आदमी उतर कर कस्बे कि तरफ जाने लगा ।

उसके चेहरे पर झुर्रियां थीं, पर बहुत ज्यादा नही । लम्बा क़द... सामने कि तरफ थोडा झुका हुआ । लंबी सफ़ेद दाढ़ी , लंबे सफ़ेद घुंघराले बाल । धोती कुरता पहने हुये हाथ मे एक काला छाता था । कुलमिला कर शांत स्वभाव के लगते थे । महिने मे दो या तीन बार एसे ही आते और कस्बे कि तरफ चले जाते । उस दिन मेरे मन मे उनको जानने कि इच्छा हुई कि वो जाते कहॉ हैं ? हर महिने दो या तीन बार आते है और हमारे कस्बे मे किसके घर जाते है ? कौतुहलवश उस दिन मैं उनके पिछे हो चला ।

पतली पगडण्डी होते हुए वो हमारे कस्बे पंहुचे और एक चौक पर आकर इधर उधर देखा फिर एक घर कि तरफ चले गए । घर का दरवाजा खटखटाया और फिर इधर उधर देखने लगे। तभी एक औरत दरवाजा खोलती है और वो अन्दर चले जाते हैं। औरत भी उन्ही के उम्र के आस पास थी। मैं अच्छी तरह से उस औरत को जनता था । मेरा घर भी पास मे ही था और छोटे कस्बे सब एक दुसरे को जानते ही है पर उनसे बातचीत का कभी मौका नही मिला था । उस औरत का आदमी बाहर कंही काम किया करता था । उसके बच्चे भी बाहर पढ़ते थे। वो घर मे अकेली रहती थी, घोष बाबु भी महिने मे चार या पांच दिन ही कस्बे मे रहा करते थे । यह सब देख कर मेरे मन मे उनको जानने कि इच्छा हुई कि हर महिने वो किस लिए यंहा आते हैं और एक खास दिन ही क्यों आते है ?

बहुत सारीं बातें मेरे मन मे घुमड़ने लगी मैं बेचैन हो गया था । मैं वापस अपने घर चला गया पर मेरा मन उन्ही सब बातों के पिछे लगा हुआ था । कई सारे सवाल मुझे परेशान कर रहे थे । वो आदमी जब घर मे कोई नही रहता है तभी क्यों आता है ? उस औरत के साथ उसका क्या रिश्ता है ? और एक आध घंटे रह कर वो वापस कहॉ चले जाता है ? मैं अच्छी तरह से उस औरत के सभी परिवार वालों को जनता था। यही सोचते सोचते कब आंख लग गयी पता नही चला। उठा तो शाम हो गई थी।

उस दिन के बाद से मैं उनके दुबारा आने का इन्तजार करने लगा क्यूंकि मैं उनको जानना चाहता था । मैं उनसे परिचय करना चाहता था। इस आदमी के पीछे क्या राज है इस बात को लेकर मैं काफी बेचैन था। यह बात मैंने ना अपने दोस्तो को बताया ना ही घरवालों को । मैं चुपचाप उनके दुबारा आने का इन्तजार करने लगा।
आगे कि कहानी अगले पोस्ट में.......

3 comments:

उमाशंकर सिंह said...

अरे विनोद बाबू और कब तक इंतज़ार कराएगें...

Anonymous said...

विनोद जी आपने कुछ ज़्यादा ही इंतज़ार करवा दिया। जिज्ञासा बनी हुई है।

विनोद said...

अरे भईया का करें, ऑफिस के काम से कंही बाहर जाना पड़ गया था। खैर आज वापस आ गया हूँ । आज शाम तक भाग दो प्रकाशित कर दूंगा।