Wednesday 6 June, 2007

यंही कंही हो ।



मुझे माफ़ करें आज फिर मुझे आवारगी अच्छी लग रही है । मैं फिर मुद्दे से भटकना चाहता हूँ , आपको तंग करना चाहता हूँ क्या करूं कण्ट्रोल नही होता ।



ये रात है या तुम्हारी जुल्फें खुली हुई है
है चांदनी या तुम्हारी नज़रों से मेरी रातें धूलि हुई हैं
ये चांद है या तुम्हारा कंगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल
हवा का झोंका है या तुम्हारे बदन कि खुशबू
ये पत्तियों कि है सरसराहट कि तुमने चुपके से कुछ कहा है
ये सोचता हूँ मैं कब से गुमसुम
कि जबकि मुझको भी ये खबर है कि तुम नही हो,
मगर ये दिल है कि कह रह है यंही हो यंही कंही हो ।

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