Saturday 15 December, 2007

अहसास


मैं फिर से भावनाओं और ख्यालों से घिर गया। मैंने अपने आप से कहा था कि फिर दुबारा नही। फिर से उस गहरे दलदल में नही फँसना। पर समय की मार देखिए... जब वक़्त अच्छा चल रहा होता है तो सब कुछ भूल जाते हैं, और वही ख्याल और भावनाएं दिलों दिमाग पर छा जाती है। फिर सामने कुछ दिखता नही है। मैंने समझाने समझने के बाद भी अपना दिल किसी के ख्यालों में लगा दिया। वो मेरी जिंदगी में एक आंधी की तरह आई और तूफान कि तरह चली गयी। और जब सपने टूटे तो पैरों के निचे से ज़मीन ही खिसक गयी।

उसके ख्याल इतने प्यारे थे कि सब कुछ भुला कर मैं कहीं खो गया था। उसके अहसास से हवाओं में एक मीठी खुशबू घुल जाती थी। उसकी आँखें, उसकी खामोशी इतना कुछ कह देती थी की मैं उसी में उलझ कर रह गया। हकीक़त से दूर, कभी उसका सामना करने की कोशिश नही की। पर जब सामने आई तो सब कुछ लूटा बैठा था मैं। मैं फिर से तनहा हो गया था। फिर से वही गलती हो गयी थी। पर साला दिल है के मानने को तैयार नही। दरअसल उसकी महक इतनी मीठी होती है कि हमेशा के लिए भूलना थोडा कठिन होता है।

आज सुबह उठ्ने का मन नही कर रहा था। आँखे लाल और मोटी हो रखी थी। कल रात मैं खूब रोया था। मेरे पास अब कोई नही था जिससे मैं अपने दिल कि बात कर सकता। न ही मेरे घरवाले और न ही दोस्त। बिल्कुल तनहा था मैं। मैं सोचता रहा... प्रभु ने मेरे साथ ही ऐसा क्यों किया। क्यूँ कोई कहता है ... मुझे तुमसे प्यार है... हर वक़्त तुम मुझे दिखाई देते हो.... तुम्हारा अहसास, तुम्हारी खुशबू मेरा पीछा करती है ..... और अचानक सब कुछ बदल जाता है। दरअसल मैं एक जमूरे कि तरह खेल दिखा रहा था। मैं इन्सान था ही नही। मेरा कोई .......
हे भगवन मैं फिर से उसी भंवर में डूबने जा रहा हूँ। नही नही.... ये समय ख्वाबों और किसी के अहसास का नही है.... मैं जनता हूँ मेरा स्वाभाव ऐसा नही है..पर......ये समय काम करने को है। बाई बाई दोस्तों... अब थोडा काम कर लेने दो। बाईईईईईईईई........

Friday 14 December, 2007

दिल दर्द और बाज़ार

समय समय पर कुछ शेरों शायरी करता रहता हूँ। उन्हीं को आप के सामने पेश कर रहा हूँ। आपकी टिपण्णी का स्वागत है।



वक़्त कि बात समझ ना सका मिलने के बाद भी आप से
ए खुदा पूजा करूं तेरी या नफ़रत अपने आप से।



दिल मे हो दर्द तो हर बात बुरी लगती है
रकीब हो सच्चा तो फासले भी छोटे लगते हैं।



नानी की कहानी और किस्सों मे परियों को सुना था
आज मुलाक़ात हुई तो बस देखता ही रह गया।



बिछड़ भी गया आप से तो गम ना होगा मुझको
तेरी तस्वीर की इबादत से कौन रोकेगा मुझको ।



फूलों को क्या खबर उनके चाहने वालों की
ख्वाहिश ऐसी कि दफ़न भी हो तो उनकी सेज पर।




दिल के कद्रदान रहे कहॉ
मंडियों मे भाव उंचे हो चले हैं।




दर्द खामोश मुस्कराहट से बयाँ नही होता
उसे जुबान पे पिरोना भी होता है।

Wednesday 12 December, 2007

दर्द का रकीब



अपने खामोश आंखों से,
तन मन मे हलचल मचा गया कोई।
अपने तनहाइयों से
मेरे कानों मे शोर कर गया कोइ।
अपने होंठों से
मेरे दिल के तार छेड़ गया कोई।


ढूंढ़ता हूँ उसे अब ,
तो नजर आती नही ,
खामोशियों मे फिर से खो गया है कोई;
तनहाइयों मे फिर लॉट गया है कोइ;
होंठों को फिर सिल गया है कोई;
कहॉ जाऊं किसे ढूंढु ,
दर्द का रकीब फिर बना गया है कोई।

Monday 10 December, 2007

शराब


धन्यवाद उमाशंकर जी, आपने अच्छी याद दिलाई। मैं तो इन दिनों कंही खो ही गया था। सुना आप भी पाकिस्तान कि सैर कर आये हैं। उम्मीद है कुछ नए अनुभव आपके ब्लोग पर देखने को मिलेंगे।


लिखना जिन्हे आता नही
उनसे भी तुमने लिखवाई है
खुदा ने शराब ऐसी चीज ही बनाईं है ।

अब ना गम ना तन्हाई है
कैसी रुमानियत सी छाई है
खुदा ने शराब ऐसी चीज ही बनाईं है ।

दिल मे छुपा के बैठे थे
जुबान पे अब बात आयी है
खुदा ने शराब ऐसी चीज ही बनाईं है ।

सब छूटने को है अब
जाने कि बारी आयी है
खुदा ने शराब ऐसी चीज ही बनाईं है ।

Thursday 9 August, 2007

प्यार को बुलबुले कि जिंदगी दे दे।




ना उम्र ना उसके साथ की चाहत है
बस प्यार को बुलबुले कि जिंदगी दे दे।

ना तख्तो ताज ना आवाम की ख्वाहिश है
बेघर घुमते आवारा को थोड़ी जमीं दे दे।

ना रिश्ते, ना नाते ना दोस्त की तलाश है
उंच नीच समझ सकूं इतनी रौशनी दे दे।

ना सोने कि सेज ना फूलों के हार की तमन्ना है
एक आह भी ना भर सकूं ऐसी मौत ही दे दे।

Saturday 28 July, 2007

एक ख़त अनजान शायर के नाम

कुछ दिन पहले एक अनजान शायर की कुछ गजलें और नज्में पढ़ने का मौका मिला और उनके काव्य की संवेदनशीलता और साफगोई ने मुझे ख़ासा प्रभावित किया। कोशिश करूंगा कि उनकी चंद बेहतरीन कृतियाँ आपके सामने रख सकूँ जो उनकी शख्सियत को आपके सामने ज़ाहिर कर सके। तब तक मेरा एक ख़त उस शायर के नाम है जिसे मैं आपके सामने पेश कर रह हूँ।

तेरी रूह से रूबरू हुआ ए शायर आज मैं
एक अरमान अब आखों मे है
यहाँ नही तो क्या हुआ, वहाँ तुमसे मिलूंगा जरुर।

तेरी महफ़िल का गवाह बन ना सका मैं
मौत से दोस्ती होने दे
एक रोज़ वहाँ महफ़िल मे रंग भारुगा जरुर

रंगीन दुनिया भी उसे फीकी नज़र आती है अब
सँभालने दो मुझको
एक रोज़ उसके चश्मे उतारूंगा जरुर।

गैरों कि बातों से परेशान है वो
मैं समझा रह हूँ
वक़्त मिले तो तुम भी उसे समझाना जरुर

Friday 27 July, 2007

मेरे आँखों को संभाल के रखना


दरअसल ये कहानी मैंने अग्रसारित किये गए एक ई चिठ्ठी से उठाई है। इसलिये आप लोगों ने शायद पहले भी पढी होगी। मुझे अच्छी लगी.... मैं इसे आप लोगों के सामने रख रहा हूँ ।

रंजना एक अंधी लड़की है, वह अंधी है इसलिये अपने आप से बहुत नफरत करती है। नवनीत उससे बहुत प्यार करता है। नवनीत को छोड़ कर वो सब से नफरत करती है। एक दिन रंजना नवनीत से कहती है - यदि मैं दुनिया देख सकती तो कितना अच्छा होता, मैं तुमसे शादी कर सकती थी।

एक दिन किसी ने उसको अपनी आंख दान दिया। अब वो सब कुछ देख सकती थी। नवनीत ने उसे पूछा अब तो तुम सब कुछ देख सकती हो, क्या तुम मुझसे शादी करोगी। रंजना ने नवनीत कि तरफ देखा तो अचंभित रह गयी वो भी अँधा था। रंजना ने नवनीत को इनकार कर दिया।

नवनीत कि आँखों मे आंसू थे और वो उससे दूर जा रहा था और यही दुआ कर रह था- "मेरी प्यारी रंजना मेरे आँखों को संभाल के रखना "

हमारा साधुवाद और बिच्छू

बचपन मे एक कहानी पढी थी,....एक साधू सुबह सुबह नदी किनारे जाता है। वहाँ देखता है की एक बिच्छू पानी की धार मे बह रहा है। साधू उसे बचाने लगता है। इसी क्रम मे बिच्छू उसे कई बार अपना जहरीला डंक भी मार मारता है। अंततः साधू उसे बचा लेता है पर जहर के असर से खुद बेसुध हो जाता है।

आप लोगों मे से भी कुछ लोगों ने पढी होगी, मुझे यह समझ मे नही आता कि ऎसी कहानियाँ हमारे यहाँ ही बच्चों को क्यों पढ़ाई जाती है। दरअसल हम साधुवाद मे कुछ ज्यादा ही यकीन रखते है। यही बिच्छू अगर पडोसी चरमपंथी के यहाँ किसी नदी मे बह रहा होता तो वहाँ के मौलवी क्या एक आम आदमी भी उसका क्या करेगा यह सब को मालुम है।

एक बात और की उस साधू ने बिच्छू को बचा कर अच्छा नही किया खुद तो बेसुध पड़ा है और दुसरे कि जिंदगी भी ख़तरे मे डाल दी। यह कैसा साधुवाद है मेरी समझ मे नही आता। चरमपंथी हमे डंक पे डंक मारे जा रहे है हम अपनी सधुवादिता दिखा रहे है।

मुम्बई बम काण्ड, ट्रेन ब्लास्ट, प्लेन हाई जैक होता है, यहाँ तक की भारतीय गणतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद पे ये बिच्छू डंक मारते हैं। क्या करते हैं हम उनको बचा कर औरों कि जिंदगी फिर ख़तरे मे डाल देते है। सारे आरोपी या तो बरी हो जाते है या उन्हें उमर क़ैद कि सज़ा दी जाती है एक आध को मौत कि सज़ा दी भी गयी तो हमारा साधुवाद सामने आ जाता है और वो फिर से आजाद हो जाता है।


हमे ऐसे ही सधुवादिता दिखाती रहनी चाहिऐ?

Tuesday 17 July, 2007

मियां चिरौंजी लाल

चिरौंजी लाल जी एक नामी गिरामी कम्पनी मे कार्यरत है। "औधोगिक संबंध" विभाग मे बड़ा बाबु के पोस्ट पर काम करते हुए उनके संबंध काफी बडे दायरे मे है। संबंध बनाने मे माहिर चिरौंजी लाल जी हमारे कार्यालय मे टंगे हुए कुछ चित्रकारी से काफी प्रभावित हैं और उस चित्र का जो भावार्थ है उसे अपनी जिंदगी मे अमल लाने की जी-तोड़ कोशिश करते रहते हैं।

वो कहते हैं ना " जवानी का दीया बुढ़ापे मे एक बार जोर से फाद्फादाता है " चिरौंजी लाल जी के रिटायर होने मे एक दो साल बचे हैं। पर वह रे जवानी, आये दिन नीली फिल्म देखने के नए नए तरीके इजाद करते रहते है। मियां चिरौंजी को कंप्यूटर काम करने के लिए ही दिया गया है इसलिये वो इसका इस्तेमाल सौ प्रतिशत काम इच्छा मे ही लगते है। कंप्यूटर स्कैन करने पर सिस्टम फ़ाइल से ज्यादा काम कि फ़ाइल ही दिखेंगी आपको। बेचारे इस उमर मे भी इतना काम करते है किसी को इसकी फिकर ही नही है। पर चलो एक पंथ दो काज "इन्नोवेशन का इन्नोवेशन और काम का काम" भला इसमे कम्पनी को क्या एतराज हो सकता है।

" हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा " साहस हो तो आप बड़ी से बड़ी दरिया मे भी छलांग मर सकते हैं जनाना प्रसाधन (टॉयलेट) क्या बात है। चिरौंजी लाल जी के रूम से दस पन्द्रह कदम पे मरदाना प्रसाधन (टॉयलेट) अपनी जानी पहचानी महक के साथ उनके स्वागत के लिए हमेशा तैयार रहता है। पर हाय रे उसकी किस्मत मियां चिरौंजी वक़्त बरबाद करने मे यकीं ही नही रखते हैं और पास वाले जानना प्रसाधन मे ही कूद पड़ते हैं। ऐसे मे औधोगिक संबंध के साथ और भी कई संबंध अपने आप बन पड़ते हैं।

लाइफ मे जब तक अपने रिस्क नही लिया तब तक आपको कुछ हासिल नही हो सकता। धीरू भाई अम्बानी ने भी रिस्क ही लिया था कहॉ से कहॉ पहुंच गए। मियां चिरौंजी ने भी रिस्क लिया सड़क से हॉस्पिटल पहुंच गए और उनकी बसंती बाबु भाई के गैराज। हमारे यहाँ ऑफिस जाने का समय ९ बजे का है और १५ मिनट का ग्रेस इस लिए दिया जाता कि आप इसका इस्तेमाल अपने बुरे वक़्त मे करें। पर वाह रे मियां चिरौंजी ९ बजे से ९:१५ तक उनका बुरा वक़्त ही चलता है। ठीक ९:१३ पर उनकी बसंती धुआं का गुब्बार छोड़ती हुई लड़खड़ा कर पंच हाउस के पास रुकती है और मियां अपना कार्ड रगड़ मर कर आराम से ऑफिस जाते हैं। ९:१५ से पहले उनको खोजना भी रिस्क कि ही बात है।

कार्यों को लेकर उनकी प्रतिबद्धता तो देखते ही बनती है। कोई रेफ़रेंस पेपर माँग कर देख लो आप उनसे आप भूल जायेंगे पर वो नही भूलते हफ्ते बाद भी पपेर आपके पास जरुर पहूँच जाएगा हालांकि उनका मुख्य काम फ़ाइल कि देख रेख करना ही है। ठीक ४:४५ पे चिरौंजी लाल जी का डेस्क काम करना बंद कर देता है। समय पर घर पहुँचने कि प्रतिबद्धता जो है, बरना उनकी गली के कुत्ते नाराज हो जाते हैं। उनकी बकरी दूध देना बंद कर देती है। बेगम साहिबा फिर उनका ही इन्तजार करती है। कम्पनी भी खुश है, आज कल ऐसे लोग मिलते ही कहॉ है।

ये शहर




लंबी उँची इमारतें हर कदम पर
एक घर मुझको दिखा नही कहीँ।

आते जाते लोगों की भिड़ बेशुमार
एक आदमी मुझको मिला नही कहीँ।

रास्ते हज़ार जाते हर तरफ
मंजिल मुझको मिला नही कहीँ।

बनते बिगड़ते रिश्तों की सौगात यहाँ
एक अदद दोस्त मिला नही कहीँ।

रौशनी से होती रंगीन रातें यहाँ
चहरे पे मुस्कान मिला नही कहीँ।

नकाब ही नकाब नजर आते हर तरफ
एक चेहरा मुझको मिल नही कहीँ।

ये शहर हमे जितना देता है
उससे ज्यादा ले लेता है कहीँ।

Monday 16 July, 2007

वो कहते हैं



दिन के भिड़ मे कई सपने संजोता हूँ
पर तन्हाई में मैं भी कभी रोता हूँ ।
वो कहते हैं रातों को नही सोता हूँ
पर मैं भी खुली आंखों से कई रातें खोता हूँ।

Friday 13 July, 2007

एक कहानी - अन्तिम कड़ी

यह सोचते-सोचते कि मंदीरा और चन्द्रनाथ बाबु के रिश्ते मे ऐसी क्या बात है जो चन्द्रनाथ बाबु को हर हफ्ते यंहा खिंच लाती है मैं वापस अपने घर चला आया। मैं फिर से उनके आने का इन्तजार करने लगा। बुधवार को मैं फिर से बस स्टोप पर पहुँचा। कई बस आये और चले गए पर चन्द्रनाथ बाबु नही आये। मैं हैरान था कि वो आये क्यों नही । शाम हो गयी थी मैं वापस अपने घर चला आया। उसके बाद वो कई हफ्ते हमारे कस्बे नही आये। मैं परेशान हो गया था की अखिर बात क्या है वो क्यों नही आ रहे है। मैं यह जानने के लिए उनके गावं चला गया। उनके घर पहुंचा तो देखा कि वो काफी बीमार है। मैं उनके सिरहाने जा कर बैठ गया। उनकी आखें बंद थी शायद सो रहे थे। शारीर बुखार से तप रहा था। जैसे ही उनके सर पे हाथ रखा तो वो जाग गए। मुझे अपने पास देख कर वो मुस्कुराएँ और पुछा ....पार्थो तुम कब आये? मैंने उनको बताया कि आपके नही आने से मैं बेचैन हो गया था इसलिये मैं आपको देखने के लिए यहाँ चला आया। उन्होने बताया कि उस दिन के बाद से उनकी तबियत खराब चल रही है उनको मियादी बुखार हो गया है। उन्होने मंदीरा के बारे मे पुछा। मैंने उनको बताया कि वो ठीक है। करीब दो तीन घंटे बैठने के बाद मैं वहाँ से वापस अपने घर चला आया।

ऐसे ही बुधवार के दिन मैंने देखा कि एक शख्स हमारे कस्बे कि तरफ आ रह है, जिसके आओ भाव बिल्कुल चन्द्रनाथ बाबु से मिल रहे है। मैं दौड़ कर उनके पास गया तो देखा कि चन्द्रनाथ बाबु ही है। पर काफी कमजोर लग रहे थे। शारीर और थोडा सामने कि तरफ झुक गया था और हाथ मे छाता के अलावा एक डंडा भी था जिसके सहारे वो चल रहे थे। मैंने उनसे उनका हालचाल पुछा और उनके साथ चले लगा। जब हम मंदीरा के घर के पास पहुंचे तो उन्होने मुझे भी अन्दर आने को कहा। मैं उनके साथ अन्दर चला गया। फिर उन्होने मेरा परिचय मंदीरा से कराया । मैंने देखा घर पे कोई भी नही था और मंदीरा खाना बाना रही थी। चूल्हे के पास ही उसने दो आसान लगा दिए और बैठेने का इशारा किया। उसके बाद वो हमारे लिए कुछ नास्ता पानी लेने अन्दर कमरे मे चली गयी। नास्ता देकर वो भी हमारे पास आकर बैठ गयी और फिर उसने चन्द्रनाथ बाबु से उनका हाल चाल पुछा। "जिंदगी समाप्ती कि तरफ है मैं उसकी परवाह नही करता , तुम भी ना करो तो अच्छा है " ऐसा कह कर चन्द्रनाथ बाबु खामोश हो गए और मंदीरा कि ऑंखें गीली होने को थी। यह देख मैं वहाँ से उठ कर आंगन मे चला आया। पर मेरा ध्यान उनकी तरफ ही था दूर से ही मैंने देखा कि दोनो एक दुसरे को निहार रहे है और दोनो कि आँखों मे आंसू बह रहे थे। कुछ देर बाद चन्द्रनाथ बाबु ने मुझे आवाज दी और कहा चलो अब जाने का वक्त हो गय है। जब मैं चन्द्रनाथ बाबु के पास पहुँचा तो देखा कि मंदीरा एक पान ला कर चन्द्रनाथ बाबु को दे रही है। चन्द्रनाथ बाबु ने पान लिया और बडे तृप्त मन से उसको चबाते हुए बहार निकलने लगे। फिर मैं उनको बस स्टोप तक छोड़ने साथ साथ गया। उनकी बस आई और वो चले गए ।
उस दिन के बाद फिर वो फिर मंदीरा से मिलने कभी नही आये. दो तीन हफ्ते हो गए फिर एक दिन उनके गावं से एक आदमी मेरे पास आया और उसने बताया कि उनकी तबियत बहुत खराब है आपको बुलया है। मैंने उनसे कहा आप चलिये मैं आता हूँ यह कह कर मैं मंदीरा के घर के तरफ जाने लगा। मैंने सोचा चलो मंदीरा को भी खबर दे देता हूँ। मैंने मंदीरा को बताया तो वो भी जाने के लिए निकल पडे,फिर हम दोनो एक तांगा किया और निकल पडे।
हम करीब ९ बजे के आस पास हम उनके गावं पहुंच गए। मंदीरा अपने घर चली गयी और मैं सीधा चन्द्रनाथ बाबु के पास चला गया। उनको देखा तो तो उनकी हालत बहुत खराब थी बुखार से शारीर तप रह था। सांस लेने मे भी काफी तकलीफ हो रही थी। वो काफी पीडा से गुजर रहे थे। आंखे बंद थी उनकी मैंने उनके सर पे हाँथ रखा तो उन्होने थोड़ी सी आंख खोली और बैठने का इशारा कर फिर से आंखे बंद कर ली। तभी मंदीरा भी अपने भाई के साथ वहाँ पहुंची उनको देख कर मंदीरा के आंख भर आये थे पर वो अपने जज्बात पर काबू करने कि कोशिश कर रहीं थी। मैंने धीरे से चन्द्रनाथ बाबु को बताया कि मंदीरा जी आयी हैं। चन्द्रनाथ बाबु ने मंदीरा कि तरफ देखा और आँखों से आंसू कि एक मोटी धर बह पडी। अब मंदीरा भी फुट फुट कर रोने लगी दोनो एक दुसरे कि तरफ देख रहे थे और रोये जा रहे थे। थोड़ी देर देखने के बाद चन्द्रनाथ बाबु के चहरे पे एक मुस्कान आयी और उन्होने अपनी आंखें बंद कर ली। फिर उसके बाद उन्होने आंखे नही खोली। शारीर ढीला हो गया था। पर चहरे पे अब भी वो मुस्कराहट बरकरार थी। मैंने उनके शारीर को छू कर देखा..... सांस रूक गयी थी धड़कन बंद थे..... चन्द्रनाथ बाबु हम लोगों को छोड़ कर चले गए थे। मंदीरा के आंसू रूक नही रहे थे।
एक जीवन इतिहास कि अन्तिम कड़ी का गवाह बन कर मैं चुप चाप यह सब देखता रहा। मैं उनके अन्तिम यात्रा मे भी उनके साथ था। शमशान पहुंच कर शव यात्री अन्तिम क्रिया क्रम की तयारी मे जुट गए। मैं अपने को उनसब से अलग कर नदी के किनारे जा कर बैठ गया था। अचानक चिड़ियों के घर लौटने के शोर से मेरी तन्द्रा टूटी तो देखा कि सूरज डूबने को है। थोडा धुआं अब भी आसमान कि तरफ उठ रहा था. शव यात्री कब घर लॉट चुके थे मुझे पता ही नही था. मैं भी उठा और यह सोचते सोचते कि इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ , मेरे कदम धीरे धीरे बढ्ने लगे।

आज भी मैं चन्द्रनाथ बाबु और मंदीरा के प्यार कि परिभाषा समझ नही पाया.....
......समाप्त ....

Wednesday 4 July, 2007

एक कहानी- भाग ४

गावं आकर देखा तो सब कुछ बदल गया था। माँ बिल्कुल कमजोर हो गयी थी शायद पिताजी के मरने के बाद उनकी हालत और खराब हो गयी थी। अब मेरे पास घर और माँ की देखभाल के अलावा और कोई काम नही था । हालांकि माँ काफी कमजोर हो गयी थी फिर भी वह मेरी शादी के लिए फिर से जी तोड़ कोशिश मे जुट गयी। शायद उनको एक वारिस कि तलाश थी, खैर माँ अपने कोशिश मे कामयाब नही हो पायी क्यों कि मैं राजी नही हुआ। कई रिश्ते आये भी और चले गए।

इधर मंदीरा एक दो बार अपने माँ बाप से मिलने गावं आयी, पर मेरी मुलाक़ात उससे नही हो पायी। मैं अपना समय बिताने के लिए , गावं के प्राथमिक विद्यालय मे आने जाने लगा। वहाँ बच्चों के साथ मेरा समय कट जता था। मैं बच्चों के साथ काफी घुल मिल गया था और बच्चे भी मुझे काफी प्यार करने लगे थे। ऐसे ही गावं मे आने के बाद ५ -५ साल बीत गए कुछ पता नही चला। एक दिन जाडे कि सुबह मैं बच्चों के साथ उनके स्कुल मे था। तभी एक बच्चा बदहवास दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला; "चंदर चाचा..... चंदर चाचा ....... अपके माँ कि तबियत खराब है अपको सब खोज रहे हैं..." मैं वहाँ से घर कि तरफ दौडा, देखा तो माँ बेसुध अपने कमरे मे चारपाई पर पडी थी। मैं उनको लेकर कर शहर के हस्पताल भागा, पर इश्वर कि मर्जी के आगे मैं हार गया। मेरी माँ का देहांत हो गया।

उनके क्रियाकरम के बाद मैं अपने घर मे चुप चाप बैठा था, शाम का वक़्त और चिड़ियों के घर लौटने के शोर ने मेरा मन को और भी ज्यादा खराब कर दिया था। तभी दरवाजे के पास कुछ आहट सी हुई मैं अपने कमरे से बाहर निकला तो देखा कि सामने मंदीरा और उसके पति खडे थे। मैं थोड़ी देर के लिए अवाक् रह गया। फिर मैंने उनको अन्दर बुलाकर बैठने को कहा। शायद मंदीरा के माँ बाप ने उनको खबर दे दी थी। करीब एक दो घंटे दोने मेरे साथ बैठे और फिर चले गए। चुकी मंदीरा के पति कंही बाहर काम करते थे इसलिये वो दुसरे दिन हमारे गावं से चले गए पर मंदीरा गावं मे ही रह गयी। वह करीब एक हफ्ते तक गावं मे रही और जब तक वो रही मेरा काफी ख़याल रखती। हर दिन वो मेरे खाने के लिए कुछ ना कुछ लेकर मेरे पास आती और हम घंटो बातें करते करते अतीत मे खो जाते। इस तरह हमारा पुराना रिश्ता फिर से ताजा होने लगा। एक हफ्ते बाद वो वापस अपने घर चली गयी।

अब मैं फिर से अकेला हो गया था, मंदीरा से मिलने के बाद अब मेरा मन बच्चों के साथ भी नही लग रहा था । ऐसे ही एक दिन बेचैन हो कर मैं मंदीरा से मिलने के लिए तुम्हारे कस्बे कि तरफ निकल पड़ा। पर मन मे हिचकिचाहट थी कि उसकी शादी हो गयी है और उसके पति भी बाहर काम करते हैं कैसे मिलूं । लोग क्या सोचेंगे। इसी कशमकश मे मैं तुम्हारे क़स्बा पहुंच गया। मेरा मन मेरे काबू मे नही था और मैं मंदीरा के घर पहुंच गया। दरवाजे पर आवाज दी तो एक २०-२२ साल का युवक आया, मैंने उससे मंदीरा के बारे मे पूछा। वो अन्दर गया और मंदीरा के साथ वापस आया। मंदीरा ने मुझे देखते ही अन्दर आने को कहा फिर उस युवक से मिलवाया - उसने बताया कि वह उसका छोटा बेटा है। उस दिन के बाद से मैं कभी कभी मंदीर से मिलने तुम्हारे कस्बे आने लगा। कुछ दिनों के बाद मंदीरा का छोटा बेटा भी बाहर पढने के लिए चला गया। अब मंदीरा भी अकेली हो चली थी। यह सोच कर मैं उससे मिलने के लिए हर हफ्ते आने लगा। इतना कह कर चन्द्रनाथ बाबू चुप हो गए।


कमरे मे एक खामोशी थी मैंने देखा उनकी आखें थोड़ी नम हो गयी थी। शायद बीते दिनों की याद ने उनके दर्द को फिर से हरा कर दिया था। उनको एकांत कि जरुरत थी इसलिये मैं पानी लेने के बहाने कमरे से बाहर चला गया। पानी लेकर वापस आया तो चन्द्रनाथ बाबू ने फिर एक सिगरेट सुलगा रखी थी। पानी पीने के बाद उन्होने अपनी घड़ी कि तरफ देखा और बोले पार्थो अब मैं चलता हूँ । मैं उनके साथ बस स्टोप तक गया रास्ते मे मैंने उनसे पूछा " आप बुधवार को ही उनसे मिलने क्यों आते हैं? " यह सुन कर चन्द्रनाथ बाबु ने मेरी तरफ देखा और खामोशी से आगे बढने लगे। कुछ देर आगे चलने के बाद उनहोंने कहा ....." उसी दिन मंदीरा कि शादी हुई थी और मेरी जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया था। "

उनको छोड़ने के बाद मैं वापस अपने घर चला आया था पर एक बात अब भी मन मे था कि इस उमर मे भी मंदीरा का कौन सा आकर्षण उन्हें यहाँ खीच लाता है।

आगे कि कहानी अगले पोस्ट में।

Monday 2 July, 2007

दिल के अरमान




दिल के अरमान एक एक कर टूटे हैं
आखों मे बसें ख्वाब सभी झूठे हैं।

कैसे भुला दूँ मैं उसकी यादों को
मुह से लगे जाम भी क्या कभी छूटे है।

दिल से ना जाने कैसी खता हो गयी है
चांद को चाहा तो सितारे मुझ से रुठें हैं।

जिनको थाम के करना था खुशियों का सफ़र तय
वही हाथ मेरे हाथों से क्यों छूटे हैं।


गैरों से क्या करूं अपनी बर्बादी का शिकवा
मेरे ख्वाब तो मेरे अपनों ने ही लुटें हैं।

कैसे समेट लूं उन लम्हों को तहरीरों में
लिखने बैठा तो अल्फाज़ मुझ से रुठें हैं

अंतरा

अश्कों की जगह....



अगर टपकता अश्कों के बदले लहू आखों से,
कोई किसी को फिर शायद ही रुलाता।

दिल टूटने कि होती जो आवाज,
तो तुम्हे दर्द का अंदाजा हो पता।



यादें ना आती जो खामोशी से चुपके चुपके,
तो मेरे घर कि रौनक होती तेरी महफ़िल से भी ज्यादा।

ना होता ग़र चांद में दाग
खूबसूरती का मुझे तोड़ मिल जाता।

ग़र करता ना कोई किसी से बेवफाई
तो शायरों मे मेरा नाम कहॉ से आता।

अंतरा

Monday 25 June, 2007

एक कहानी- भाग ३

नेटवर्क प्रॉब्लम कि वजह से कहानी भाग २ मुझे बिच में ही प्रकाशित करना पड़ा । क्यों कि मुझे ब्लोग एडिट करने का मौका नही मिल। खैर कोई बात अब आगे सुनें ।

पहरा इतना बढ गया कि हमारा मिलना जुलना बहुत मुश्किल हो गया था। मैं अपने घर मे बेचैन था वो अपने घर मे। इस तरह एक दो महिने बीत गए। इधर हमारा इंटर का रिजल्ट भी आ गया। ऐसे ही एक दिन शाम को मैं कंही बहार से अपने घर पहुँचा तो देखा कि मंदीरा के पिताजी मेरे घर आये हुये हैं। मुझे लगा कि उसके पिताजी यंहा क्या कर रहे है ....मैं दुसरे कमरे से पिताजी और सत्येन बाबु कि बातें सुनने लगा। तभी पता चला कि सत्येन बाबु मंदीरा के शादी का न्योता देने आये हैं। यह जानते ही मेरा मन बेचैन हो गया मैं उसी वक़्त घर से निकल गया और गाँव के तालाब के किनारे जा कर बैठ गया। बैठे बैठे कब रात के १२ बज गए पता नही चला। उधर घर मे सब मुझे खोज रहे थे। जब घर वापस आया तो सब लोग परेशान थे। चुकी मैं घर का इकलौता था और इस घटना के बाद घरवाले थोडा परेशान हो गए थे । मेरा दाखिला आगे कि पढ़ाई के लिए शहर के एक कॉलेज मे करवा दिया गया। मैं होस्टल मे रहने लगा पर मेरा मन अभी भी नही लगता था। उसकी शादी की खबर के बाद मैं बिल्कुल टूट चूका था । मैं हर पल मंदीरा के बारे में ही सोचता रहता था । एक भी पल के लिए मैं उसे भूल नही पता था।

ऐसे ही एक दिन मैं काफी बेचैन था मुझे लग रह था कि बस अब जिंदगी मे कुछ नही रहा। मुझे लगा मैं जीने का मकसद ही खो रह हूँ । उसी दिन मैंने होस्टल छोड़ने का फैसला किया और बग़ैर किसी को बताये होस्टल से निकल गया । स्टेशन पहुँचा तो देखा कि गुजरात जाने वाली एक ट्रेन लगी हुई है। मैं उस ट्रेन मे जा कर बैठ गया और गुजरात पहुच गया। मैं उसे भुलाना चाहता था । वहाँ पहुंच कर मैंने पेट पालने के लिए एक छोटी सी नौकरी पकड़ ली। मैं वापस अपने गावं नही जाना चाहता था । इस तरह वहाँ मैंने दो तीन साल बिताएँ पर मैं मंदीरा को भूल नही पाया। इसी बिच मुझे खबर लगी की एक जहाज जो योरोप के लिए जा रही है उसमे कुछ लोगों की जरुरत है। उसको भूलना चाहता था इस लिहाज से मैंने वो नौकरी पकड़ ली और मैं योरोप के लिए रवाना हो गया। दुनियां के कई शहरों मे मैं गया कितने मौसम को महसूस किया पर मंदीरा कि आबोहवा से बहार नही निकल पाया। मैं चाह कर भी उसे नही भूल प रह था । इस तरह १०-१५ साल गुजर गए। इस दौरान कई बार हिंदुस्तान भी आया पर अपने घर नही गया और ना ही उनकी कोई खबर ली। मन मे एक क्रोध और अभिमान था जो इस सब से मुझे दूर रखे हुये था ।

इस बिच एक बार मैं पोंड़ीचेरी गया वहाँ मेरी मुलाक़ात कॉलेज के एक दोस्त से हुई जो मेरे ही रूम मे रहता था। उसने मुझे बताया कि मेरे होस्टल छोड़ने के बाद मेरे घर वाले मुझे खोजने आये थे पर कुछ खबर नही मिलने से परेशान हो कर वो वापस चले गए थे। बाद मे उसने मुझे बताया कि मेरे पिताजी का देहांत हो गया है । यह सुनते ही मैं बिल्कुल टूट गया और वापस अपने गावं चला आया ।

आगे कि कहानी मैं अगले पोस्ट मे बताऊंगा ......

Friday 22 June, 2007

कुछ ऐसे भी होते हैं।

कुछ खुल के बरसते हैं
कुछ सिर्फ ख्वाब ही दिखाते हैं ,
बारिसों में कुछ बादल ऐसे भी होते हैं।

कुछ हवाओं के साथ उड़ते हैं
कुछ साखों के साथ होते हैं,
पतझड़ मे कुछ पत्ते ऐसे भी होते हैं।

कुछ ख्वाबों मे चलते हैं
कुछ हक़ीकत मे जी रहे होते हैं,
भिड़ मे कुछ लोग ऐसे भी होते हैं।

कुछ छुपाते हैं हमसे
कुछ सब बताते हैं,
दोस्तो मे कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं।




कुछ खंजरों से वार करते हैं
कुछ आपनी आँखों से,
प्यार मे कुछ क़त्ल ऐसे भी होते हैं।

कुछ जान ले लेते हैं
कुछ हंस के जान दे देते हैं,
मुहब्बत मे कुछ किस्से ऐसे भी होते हैं।

कुछ हंस के जीते है
कुछ रो के उम्र बिताते हैं
जहाँ मे कुछ लोग हमारे जैसे भी होते हैं।

Thursday 21 June, 2007

एक कहानी- भाग २

कहानी पे टिपण्णी करने वालों को धन्यबाद! लम्बा इन्तजार करना पड़ा इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।

बुधवार का दिन, और जेठ कि गरमी, पसीने से बुरा हाल था। पर मन मे शांति थी कि आज फिर वो आदमी आने वाला था। हम सारे दोस्त हमेशा कि तरह उसी बस स्टोप के बगल वाले सिगरेट कि दुकान पर खडे थे। पर मेरा ध्यान बार बार हाईवे कि तरफ था और मैं उसके आने का इन्तजार कर रहा था। कुछ देर बाद देखा एक बस आकर रुकी । मैं चुपचाप बस स्टोप के पास चला गया। एक - एक कर के लोग उतरे, पर जिसे मैं खोज रहा वो नही उतरा। थोड़ी देर के लिए मैं परेशां हो गया । मैं सोचने लगा आज वो क्यों नही आये .... और सोचते सोचते मैं वापस जाने लगा । तभी देखा कि जिसे मैं खोज रह था वो हमारे कस्बे कि तरफ जा रहा है। शायद वो पिछे के दरवाजे से उतर गए थे।

खैर मैं उनके पिछे भागा। मन मे कई सवाल थे, सोच रहा था सब एक साथ ही पूछ डालूं... और जब उनके पास पहुंचा तो सांस फूल रहा था। मैं उनसे कुछ पूछ पता इससे पहले उन्होने मेरी तरफ बडे गौर से देखा और हलके से मुस्कुराएँ. मैंने उनको नमस्कार किया और अपने बारे मे बताया । पर आज उनका चेहर कुछ उदास दिख रह था .... कहॉ से पुछू कँहा से नही इसी उधेड़बुन में मैं उनके साथ आगे बढता चला जा रह था । तब तक हमारा क़स्बा आ गया और मेरी हिम्मत नही हुई उनसे कुछ पूछने की । और वो फिर उस औरत के घर चले गए ।

इसी तरह एक दो महिने गुजर गए और हम दोनों के बिच काफी घनिष्ठता हो गयी । हम दोनो एक दुसरे के बारे मे काफी कुछ जान गए थे।

ऐसे ही एक दिन चन्द्रनाथ बाबु फिर से हमारे कस्बे मे आये । उस दिन मेरे घर पर कोई कोई नही था और वो औरत भी कस्बे मे नही थी । इस बात से चन्द्रनाथ बाबु अनजान थें। मैंने उनको बताया कि आप जिससे मिलने जा रहें हैं वो घर पे नही है । फिर मैंने उनको अपने घर चलने का न्योता दिया , थोड़ी देर सोचने के बाद वो राजी हो गए।
हम घर पहुंचे ...और मैं उनके नास्ते का प्रबंध करने लगा। इस बिच हमारी बात चित होती रही । फिर मैंने उनको नास्ता दिया और सोचा अभी मैं सारे सवाल पूछ सकता हूँ । मैंने उनसे पूछा .... वो औरत आपकी क्या लगती है ? यह सुनते ही उनके चहरे पर कई सारे भाव आने- जाने लगे पर कुछ कहा नही। पानी का ग्लास जमीन पे रखा और फिर से नमकीन खाने लगे। अब मैं थोडा हिल गया था पर फिर भी हिम्मत कर के फिर पुछा ... आप एक खास दिन ही उनसे मिलने हमारे कस्बे मे क्यों आते हैं? उन्होने नास्ता खतम किया और एक सिगरेट जलायी। एक लम्बा काश लेकर छत कि तरफ देखा और बोले ..... बहुत लंबी कहानी है सुनना चाहोगे ? मैंने चुपचाप हामी भर दी।
चन्द्रनाथ बाबु ने आखें बंद की और अपने अतीत मे खो गए । मैं उनके पास बैठ कर सब सुनता रहा ।

मंदीरा से मेरी जान पहचान बचपन कि है। हम दोनो इस्लामपुर गाँव के एक ही स्कूल मे पढा करते थे। वो मुझसे एक क्लास नीचे पढ़ती थी। उसका परिवार गरीब था इसलिये वो नयी किताबें नही ख़रीद सकती थी । वो मुझसे मेरी किताब लिया करती थी । फिर बाद में वो मुझसे कुछ सवाल पूछने भी मेरे घर आने लगी । उस वक़्त हम क्लास ९ मे पढ़ते थे। ऐसे ही आने जाने के क्रम मे हमारी दोस्ती हो गयी। अब हम एक दुसरे से मिलने का बहाना खोजने लगे । इंटर तक हमारी दोस्ती प्यार मे बदल गयी। हम एक दुसरे को दिलों जान से चाहने लगे । हम छुप छुप कर मिलने लगे, इधर हमारा प्यार परवान चढ़ने लगा उधर इस बात कि खबर पुरे इस्लामपुर मे आग कि तरह फ़ैल गयी ।

अब हमारे सामने कई दीवारें खड्डी हो गयीं थी। चुकी हम ब्रह्मण परिवार से और पिताजी समाज मे कुछ ज्यादा रसूख रखते थे , मुझे उससे नही मिलने के लिए घर से दबाव दिया जाने लगा। घर मे मेरी शादी कि बात चलने लगी। और मैं मंदीरा से शादी करना चाहता था ।


उधर मंदीरा के घर पे भी मेरे पिताजी के लोगों ने दबाव डाला कि उसकी शादी कंही करवा दी जाय।

Thursday 14 June, 2007

एक कहानी

आइये आज मैं आपका परिचय एक शख्स से करवाता हूँ जिनको हम "बोस दा" के नाम से जानते है । बोस दा मूलतः बंगाली है इसलिये उनका रुझान साहित्य और कला कि तरफ काफी है । यधपि उनको देख कर इस बात का अंदाजा लगाना काफी मुश्किल है क्यूंकि वो हमेशा अपने काम को लेकर ऑफिस मे व्यस्त दिखते है । परंतु अगर उनके काम को देखा जाये तो उसमे आपको इत्मिनान और कला दोनो दिखेंगे । बहुत ही शांत और इत्मिनान स्वभाव के बोस दा और मैं एक दिन अपने इस ब्लोग साईट के बारे मे बात कर रहे थे। बात चित के क्रम मे हम प्यार को लेकर चर्चा करने लगे। उस दिन उन्होने मुझे एक कहानी सुनाई , जिसे मैं आप लोगों को भी सुनाता हूँ ।



हम हमेशा कि तरह उस बस स्टोप के बगल वाले सिगरेट कि दुकान पर खडे थे। कुछ दोस्त पेड के छाँव मे सिगरेट पी रहे थे । अक्सर हम गरमी कि दोपहरी मे वक़्त काटने के लिए अपने दोस्तो के साथ वहाँ इकठ्ठा होते थे । अमित और प्रणव सामने के तालाब मे पत्थर फेंक कर पानी मे उछाल गिन रहे थे । हम बंगाल के छोटे से कस्बे मे रहते थे जहाँ हर तरफ एक खामोशी पसरी होती थी ।

जिस रास्ते के बगल मे हम खडे थे , यधपि था तो एक स्टेट हाईवे पर गाडियां गिनी चुनी ही आती थीं । मेरा ध्यान बस स्टोप कि तरफ था, मैंने देखा .... स्टेट हाईवे कि एक जर्जर बस स्टोप पर आकर रुकी । बस से एक ६५- ७० साल का आदमी उतर कर कस्बे कि तरफ जाने लगा ।

उसके चेहरे पर झुर्रियां थीं, पर बहुत ज्यादा नही । लम्बा क़द... सामने कि तरफ थोडा झुका हुआ । लंबी सफ़ेद दाढ़ी , लंबे सफ़ेद घुंघराले बाल । धोती कुरता पहने हुये हाथ मे एक काला छाता था । कुलमिला कर शांत स्वभाव के लगते थे । महिने मे दो या तीन बार एसे ही आते और कस्बे कि तरफ चले जाते । उस दिन मेरे मन मे उनको जानने कि इच्छा हुई कि वो जाते कहॉ हैं ? हर महिने दो या तीन बार आते है और हमारे कस्बे मे किसके घर जाते है ? कौतुहलवश उस दिन मैं उनके पिछे हो चला ।

पतली पगडण्डी होते हुए वो हमारे कस्बे पंहुचे और एक चौक पर आकर इधर उधर देखा फिर एक घर कि तरफ चले गए । घर का दरवाजा खटखटाया और फिर इधर उधर देखने लगे। तभी एक औरत दरवाजा खोलती है और वो अन्दर चले जाते हैं। औरत भी उन्ही के उम्र के आस पास थी। मैं अच्छी तरह से उस औरत को जनता था । मेरा घर भी पास मे ही था और छोटे कस्बे सब एक दुसरे को जानते ही है पर उनसे बातचीत का कभी मौका नही मिला था । उस औरत का आदमी बाहर कंही काम किया करता था । उसके बच्चे भी बाहर पढ़ते थे। वो घर मे अकेली रहती थी, घोष बाबु भी महिने मे चार या पांच दिन ही कस्बे मे रहा करते थे । यह सब देख कर मेरे मन मे उनको जानने कि इच्छा हुई कि हर महिने वो किस लिए यंहा आते हैं और एक खास दिन ही क्यों आते है ?

बहुत सारीं बातें मेरे मन मे घुमड़ने लगी मैं बेचैन हो गया था । मैं वापस अपने घर चला गया पर मेरा मन उन्ही सब बातों के पिछे लगा हुआ था । कई सारे सवाल मुझे परेशान कर रहे थे । वो आदमी जब घर मे कोई नही रहता है तभी क्यों आता है ? उस औरत के साथ उसका क्या रिश्ता है ? और एक आध घंटे रह कर वो वापस कहॉ चले जाता है ? मैं अच्छी तरह से उस औरत के सभी परिवार वालों को जनता था। यही सोचते सोचते कब आंख लग गयी पता नही चला। उठा तो शाम हो गई थी।

उस दिन के बाद से मैं उनके दुबारा आने का इन्तजार करने लगा क्यूंकि मैं उनको जानना चाहता था । मैं उनसे परिचय करना चाहता था। इस आदमी के पीछे क्या राज है इस बात को लेकर मैं काफी बेचैन था। यह बात मैंने ना अपने दोस्तो को बताया ना ही घरवालों को । मैं चुपचाप उनके दुबारा आने का इन्तजार करने लगा।
आगे कि कहानी अगले पोस्ट में.......

Saturday 9 June, 2007

मैं कौन ??



जानने कि कोशिस करता हूँ
तो अनजान बनते हैं

इकरार करता हूँ
तो इनकार करते हैं


प्यार करता हूँ
तो सवाल करते है

कहॉ जाऊं क्या करूं
चौराहे पर अब उसका
इन्तजार करता हूँ .....

मेरी बुढिया....




तुम्ही तो हो जिससे प्यार किया है
ना वक़्त ना उम्र का लिहाज किया है

तुम्ही तो हो जिससे प्यार किया है
ना वफ़ा ना चाहत का इन्तजार किया है


तुम्ही तो हो जिससे प्यार किया है
ना ज़ख्म ना दर्द का परवाह किया है

तुम्ही तो हो जिससे प्यार किया है
ना खूबसुरती ना जिस्म का चाह किया है

मेरी बुढिया मैंने सिर्फ तुमसे प्यार किया है.....

Thursday 7 June, 2007

खामोशी


साढ़े ६ अरब कि आबादी पर कोई सुनने वाला नही, कोई देखने वाला नही, समझने वाला नही । सब के सब भागे जा रहे हैं , न जाने कहॉ जाना है सब को । बसों मे, ट्रेन मे , फुटपाथ पे ... कंधे से कन्धा को धक्का दे कर चले जा रहे है । कोई किसी से बात नही कर रहा है ।
भिखारी एक कोने मे गुदरी कि तरह पड़ा है जो एक दिन इनकी तरह बन जाने का सपना देखता रहता है ।
लड़का हमेशा कि तरह उसका इन्तजार कर रहा है जिसको कभी खोना नही चाहता है ।
शोर है तो बस इंजन का, रेह्डी वालों का , चने मूंगफली वालों का । मछली वाली बाई गला फाड़ कर चिल्ला रही है .... अस्सी का एक किलो ! अस्सी का एक किलो !
दस का एक ........! दस का एक ........! बार बार चिल्ला कर फुल वाला ग्राहक पता रह है ।

बड़ी अजीब बात है ? घर मे सब कुछ है पर बात करने वाला कोई नही , कभी कोई दरवाजा नही खटखट्टाता । अभी एक खबर पढी .... बोरिवाली मे एक फ़्लैट दो साल से बंद पड़ा था जब खोला गया ... तो एक बुजुर्ग दम्पत्ति मरी पायी गयी । अभी कुछ ही दिन पहले ममता ने आत्महत्या कर ली ..... सुना था कि वो हमेशा गाना गुनगुनाया करती थी " डोंट वरी वी हैप्पी " ..... क्या हो गया था उस रात को ?

अब तो मैं समझना ही नही चाहता, जानना ही नही चाहता । सिर्फ सुनता हूँ , देखता हूँ पर महसूस नही करता ....ऑपरेशन मे कई अंगों के साथ महसूस करने वाला हिस्सा भी कट कर अलग हो गया है ।

मुझे तो लगता है कि साढ़े ६ अरब लोग साढ़े ६ अरब अकेलापन ।

Wednesday 6 June, 2007

इक बात कहूँ ग़र सुनती हो .....


इक बात कहूँ ग़र सुनती हो .....
तुम मुझको अच्छी लगती हो ।

कुछ चंचल सी कुछ चुप चुप सी
कुछ पागल पागल लगती हो ।
हैं चाहने वाल और बहुत
पर तुममे है बात ही कुछ
तुम अपने अपने लगते हो ।

इक बात कहूँ ग़र सुनती हो .....
तुम मुझको अच्छी लगती हो ।

ये बात बात पर खो जाना
कुछ कहते कहते रूक जाना ।
क्या बात है हमसे कह डालो
ये किस उलझन मे रहती हो ।

इक बात कहूँ ग़र सुनती हो .....
तुम मुझको अच्छी लगती हो ।

यंही कंही हो ।



मुझे माफ़ करें आज फिर मुझे आवारगी अच्छी लग रही है । मैं फिर मुद्दे से भटकना चाहता हूँ , आपको तंग करना चाहता हूँ क्या करूं कण्ट्रोल नही होता ।



ये रात है या तुम्हारी जुल्फें खुली हुई है
है चांदनी या तुम्हारी नज़रों से मेरी रातें धूलि हुई हैं
ये चांद है या तुम्हारा कंगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल
हवा का झोंका है या तुम्हारे बदन कि खुशबू
ये पत्तियों कि है सरसराहट कि तुमने चुपके से कुछ कहा है
ये सोचता हूँ मैं कब से गुमसुम
कि जबकि मुझको भी ये खबर है कि तुम नही हो,
मगर ये दिल है कि कह रह है यंही हो यंही कंही हो ।

Thursday 31 May, 2007

मोहब्बत


नमस्कार, आज ही क़ैद से छूट कर वापस आया हूँ । दरअसल शुक्र ग्रह से आये एक प्राणी ने शनिवार को मेरा अपहरण कर लिया था । कल ही मुझे छोड़ा है, साले ने बहुत सताया , रातों कि नींद, दिन का चैन सब चुराया । अब जबकि मैं छूट गया हूँ तो सोचा चलो फिर से आपलोगों को तंग करूं ।

मजबूर ये हालत इधर भी है उधर भी
तनहाई कि एक रात इधर भी है उधर भी
कहने को बहुत कुछ है मगर किससे कहे हम
कब तक यूं ही खामोश रहे और सहे हम
दिल कहता है दुनिया कि हर एक रस्म उठा दें
दीवार जो हम दोनो में है आज गिरा दें
क्यों दिल में सुलगते रहें लोगों को बता दें
हाँ हमको मोहब्बत है मोहब्बत ....
अब दिल में यही बात इधर भी है उधर भी ।

Thursday 24 May, 2007

वो क्या था ?



बात उन दिनों कि है जब मैं क्लास चौथी या पांचवी मे पड़ता था । मेरे स्कूल मे एक टीचर हुआ करतीं थी, नाम याद नही वैसे भी नाम मे क्या रक्खा है । हाँ लेकिन चेहरा अब भी याद है; घुंघराले बाल थे उनके, मोटी लंबी आंखे, गोल चेहरा कुल मिला कर बहुत अच्छी नही पर मुझे बहुत अच्छी लगतीं थी और आज भी अच्छी लगती है ।

मैं उस वक्त ८ या ९ साल का होऊंगा । लाजमी है कि उस उम्र मे मुझे रिश्तों के बारे में बहुत पता नही था इतना जरुर था कि जब भी वो क्लास लेने आती थी मुझे बहुत अच्छा लगता था । मै अन्दर ही अन्दर उनको लेकर कितने ख्वाब देखने लगता था । यधपि हमारे क्लास मे बहुत लडकियां मेरे उमर कि थीं पर फिर भी मेरा ध्यान उनकी तरफ कम होता था । मै तो बस टीचर कि आँखों मे ही देखता रहता था । वो भी मुझे बहुत प्यार करती थी क्यों कि मैं क्लास के अच्छे पढने वाले लड़कों में आता था ।

एक बार कि बात है ... मै उस वक़्त क्लास का मोनिटर था । मोनिटर होने के नाते मेरी चलती थी । मै उस दिन घर से बेना (पंखा ) का डंडा लेकर स्कुल गया था क्यों कि मै थोद्दा और रॉब झाड़ना चाहता था ।

मेरे साथ मेरे चाचा का लड़का मनोज भी पढता था, वो पढने मे कम मार पिटाई मे ज्यादा ध्यान देता था । उसी दिन टिफिन (लंच) मे उसकी हमारे ही क्लास के दुसरे सेक्शन के लड़के सूरज के साथ मार पिटाई हो गई । इस बात को लेकर मै बहुत ग़ुस्से में था मैंने सोचा ठिक है बच्चू मै तुम्हे बताता हूँ ... पर उस वक़्त कुछ किया नही । टिफिन के बाद देखा कि सूरज टॉयलेट कि तरफ जा रह है । मोनिटर होने के नाते किसी बहाने से मै क्लास से बाहर निकला और टॉयलेट के बाहर जा कर खड़ा हो गया । उसके निकलते ही मैंने उसी डंडे से धुलाई चालू कर दी . उसी क्रम में मेरी उंगली डंडे मे लगे किल से कट गयी और कटी भी इतनी कि अलग होने के आस पास । बस फिर क्या था खून देखते ही ड़र गया था और सूरज भी भाग गया था । किसी तरह मैं उंगली पकड़ कर प्रिंसिपल रूम कि तरफ भगा । काफी दर्द हो रहा था आंसू रूकने का नाम नही ले रहे थे । खैर प्रिंसिपल रूम मे मेरी पट्टी वटि लगायी गयी । मैं रो रहा था तभी देखा कि वही टीचर सामने से आ रही है ... उनको देखते ही मई अपने आप को सँभालने कि कोशिस करने लगा .

वो मेरे पास आई और मेरे हाथो को अपने हाथ में लिया ... मेरे उंगलियों को जैसे ही छुआ दर्द मानों ग़ायब ही हो गया । मैं चुप हो गया था आंसू रूक गए थे । मैं फिर से गोते लगाने लग गया था । फिर ना जाने क्या क्या ख्वाब देखने लग गया था .....
मैं ये आप बीती इस लिए लिख रह हूँ क्यों कि इसकी धुंधली यादें आज भी मुझे कंही ले जाती है । पर इसके पीछे कई सवाल भी है जिनका उत्तर आज आज भी खोजने कि कोशिस करता हूँ ।

इस उमर में क्या ऐसा होता है ?

अगर होता है तो क्लास मे और भी हम उम्र लडकियां थीं टीचर को लेकर ही क्यों?

उनके छूने से दर्द का गायब हो जाना क्या था ?

इस रिश्ते को क्या कंहेंगे ?

ऐसे कई सवाल है, मैं जाना नही चाहता पर आज भी मैं अपनी जिंदगी के पीछे के पन्ने पलटता हूँ तो खो जाता हूँ.....

क्या आप भी ?

वो कुछ कहती है


मुझे चुप रहना गवारा नही
तुम्हे चाहा तो पता चला
खामोसियाँ भी कुछ कहती है ।



मुझे पता नही
गुमसुम में भी मजा है
तुम्हे चाहा तो पता चला
तन्हाई क्या कहती है ।

मुझे पता नही
बंदिशों में भी मजा है
तुम्हे चाहा तो पता चला
सादगी क्या कहती है ।

मुझे पता नही
चाहत क्या चीज है
तुम्हे चाहा तो पता चला
प्यार क्या कहता है ।

Tuesday 22 May, 2007

मैं और मेरी तनहाई


मैं और मेरी तनहाई
अक्सर ये बातें करते हैं
तुम होती तो कैसा होता?
तुम ये कहती तुम वो कहती
तुम इस बात पे हैरान होती
तुम इस बात पे कितनी हंसती
तुम होती तो ऐसा होता
तुम होती तो वैसा होता
मैं और मेरी तनहाई ....

I Want to Dance and Play...




Hello friends... plaese bear with me. now this time I am writing few lines from the song "Hum bane tum bane" from the film "Ek Duje ke Liye". where the kamla hasan singing this song...



I don't know what you say...
But I want to dance and play...
I want to play the game of love...
I want you in the name of Love.

Not here, there up in the sky...
come with me , i want to fly...
don't stop.... let the whole world know.
come fast... come fast.. don't be slow...
life is fare... life is slow....

कभी कभी


कभी कभी मेरा मन भी ना जाने क्यों ऐसे गानों के पिछे भागता है जो मुझे पसंद है ।
मै जनता हूँ आप में से कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिन्हे ये पसन्द ना आये । मगर यूं ही कभी कभी मेरा दिल में ख्याल आता है कि मैं आपको तंग करता रहूँ ।

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ,
कि जिंदगी तेरी जुल्फों के नम्र छांव मे गुजरने पाती
तो शायद आप हो भी सकती थीं ।

रंजो गम कि स्याही जो दिल पे छाई है
तेरी नजर कि सुवाओं मे खो भी सकती थी ।
मगर ये हो न सका
मगर ये हो ना सका , और अब ये आलम है
कि तू नही तेरा गम तेरी जुस्तजू में भी नही ।
गुजर रही है कुछ इस तरह से जिंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे कि आरजू भी नही ।

न कोई राह, न कोई मंजिल, न कोई रौशनी का सुराग
भटक रही है अँधेरे मे जिंदगी मेरी ,
इन्ही अंधेरों मे रह जाऊंगा कभी खो कर ।
मै जनता हूँ मेरी हम्न्फ्फस
मगर यूं ही कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है .......

Monday 21 May, 2007

बैधानिक चेतावनी

सबसे पहले मै आप सभी को बता दूं कि इस ब्लोग पन्ने पे उपस्थित जीतनी भी अस्वीकार्य सामग्री है, उसकी जिम्मेदारी कंही से भी मेरी नही है । ऐसा मै इसलिये कह रह हूँ कि पिछले दिनों मेरा दिमाग दुसरे ग्रह से आये अपहरंकर्ताओं ने कब्जा कर रखा है ।

और हाँ, अगर अपको सामग्री अच्छी लगे तो उसपर अपनी टिपण्णी (कमेंट) जरुर लिखे अन्यथा, इसके बाद कि जिम्मेवारी मेरी नही.....

आदेशानुसार

Saturday 19 May, 2007

अरमान


गहरी आंखों मे दर्द ना बटोरो,
काले बादलों को बरसने तो दो ।

धड़कते अरमानों को बंदिशें न दो,
सुनहरे बालोँ को बिखरने तो दो ।

उबलते जज्बातों को उम्र न दो,
जख्मों को अब पिघल जाने तो दो

चंचल नज़रों पे वक़्त के पहरे ना दो,
पलकों को फिर शर्माने तो दो ।

चेहरे पे चेहरा आने न दो,
गलों पे लाली छाने तो दो ।

तड़पते दिल को यूं जंजीरे ना दो,
चाहतों को यूं हवाओं मे उड़ने तो दो

लंबी जिंदगी को तनहाई न दो,
कानों मे शोर होने तो दों ।